आज से करीब तीस साल पहले तक के दौर की कल्पना कीजिए. अगर आपको किसी दूर बैठे अपने प्रियजन से संवाद करना होता था,तो आपको कई दिनों तक चिट्ठी का इंतजार करना पड़ता था. लेकिन फिर आया टेलीफोन जिसने आवाज को पंख दिए. और अब, हमारे हाथ में स्मार्टफोन आ चुका है, जिसने कलेंडर, कम्पास, घड़ी, टॉर्च, कैमरे, डायरी, कैलकुलेटर, प्लानर, पर्स जैसी करीब एक दर्जन चीजों को हमारी जरूरत की चीजों की सूची से बाहर कर दिया है. ‘टेक्नोलॉजी’ ही वह जादू है, जो हर पल हमारी जिंदगी को बदल रहा है. वह भी सदियों पहले से. तकनीक का सबसे बड़ा आकर्षण यही है कि इसका लाभ हर पीढ़ी को उसके पहले वाली पीढ़ी से ज्यादा मिलता है.
तकनीक की बदलती दुनिया और मानव जीवन पर उसके प्रभाव का सटीक विश्लेषण कर रहे हैं लेखक, पत्रकार एवं शॉर्ट-फिल्म निर्माता डॉ. संदीप अग्रवाल
युद्धों का स्वरूप तलवार और बारूद से लेकर परमाणु हथियार तक बदलता आया है, और अब यह रोबोट, एआई, साइबर स्पेस व अंतरिक्ष तक पहुंच गया है. भविष्य के युद्ध सैनिकों से अधिक मशीनों और तकनीक पर आधारित होंगे. ड्रोन स्वॉर्म, रोबोटिक सैनिक, स्वचालित टैंक और एआई रणनीतिक निर्णय लेकर युद्धक्षेत्र को नियंत्रित करेंगे. साइबर हमले बैंकिंग, ऊर्जा व संचार प्रणाली ठप कर सकते हैं, जबकि अंतरिक्षीय हथियार उपग्रह नष्ट कर सकते हैं. जैविक व नैनो हथियार नई चुनौती हैं. भारत भी इस दिशा में कदम बढ़ा रहा है. लेकिन मानवता की सुरक्षा हेतु इस पर अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण आवश्यक है.
भविष्य के युद्धों के बदलते स्वरूप के बारे में बता रहे हैं एचएलएम ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशन के संयुक्त निदेशक डॉ. शशांक द्विवेदी
भारतीय राजनीति में अब राष्ट्रीय पार्टियां ऐसी रणनीति बना रही हैं, जिससे बड़े क्षेत्रीय क्षत्रप न उभरें और चेहराविहीन मुख्यमंत्री बनाए जाएं. पहले मुख्यमंत्री राज्यों में प्रभावी नायक होते थे, पर अब केंद्रीय नेतृत्व का नियंत्रण बढ़ गया है. 1967 के बाद क्षेत्रीय दलों का विस्तार हुआ, आपातकाल और 1977 के चुनाव ने राजनीति की दिशा बदली, 1980 के दशक में असम और आंध्र प्रदेश में करिश्माई उभार हुए, 1989 में तीसरी धारा केंद्र तक पहुंची. भाजपा का उभार अयोध्या आंदोलन से हुआ और उसने 2014-19 में बहुमत पाया, पर 2024 में फिर गठबंधन पर निर्भर हो गई. लंबे समय तक टिके नेता मुख्यतः क्षेत्रीय दलों से निकले हैं. वामपंथ अब सीमित है. कुल मिलाकर, क्षत्रपों का दौर घट रहा है और हाईकमान संस्कृति बढ़ रही है.
क्षत्रपों से विहीन होती भारतीय राजनीति के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार एवं संसदीय मामलों के जानकार अरविंद कुमार सिंह
बाबा आमटे ने मानवता और सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाया। माँ से करुणा व परोपकार की प्रेरणा मिली और कुष्ठरोगी तुलसीराम से मुलाकात ने उन्हें सेवा-मार्ग पर स्थायी रूप से स्थापित किया। 1949 में महारोगी सेवा समिति की स्थापना कर 1951 में आनंदवन की नींव रखी, जहाँ श्रम और स्वावलंबन के माध्यम से कुष्ठरोगियों, विकलांगों और वंचितों का पुनर्वास हुआ। साधना ताई और पुत्रों के सहयोग से आनंदवन शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती, डेयरी, विकलांगों के पुनर्वास और सामाजिक समरसता का केंद्र बना। बाबा मानते थे कि सेवा और श्रम से ही आनंद और आत्मबल मिलता है।
भारत के प्रमुख व सम्मानित समाजसेवी बाबा आमटे के साथ लगभग 26 वर्ष पहले की गई बातचीत प्रस्तुत कर रहे हैं प्रो. कृपाशंकर चौबे
महेंदर मिसिर (1886-1956) भोजपुरी लोकसंगीत के अमर कलाकार और ‘पुरबी गीत’ के जनक थे. छपरा (बिहार) में जन्मे मिसिर ने गीतों में ग्रामीण जीवन, प्रेम, विरह और अध्यात्म का मधुर चित्रण किया. वे स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रहे और नकली नोट छापकर क्रांतिकारियों को सहयोग देने पर जेल गए, जहाँ उन्होंने भोजपुरी का पहला महाकाव्य ‘अपूर्व रामायण’ लिखा। उनकी रचनाएँ महेन्द्र मंजरी, महेन्द्र विनोद, महेन्द्र चन्द्रिका आदि प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भोजपुरी संगीत को वैश्विक पहचान दी। भिखारी ठाकुर जैसे कलाकार उनके शिष्यवत अनुयायी रहे. आज भी उनके गीत भोजपुरिया मंचों की शान बने हुए हैं
अद्वितीय कलाकार महेंदर मिसिर के जीवन की दास्तान प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक श्रीराम पुकार शर्मा
चिड़ियों सी चकहने वाली ‘चुक्कू’ का फोकस पिछले कुछ महीनों से नानी नहीं, बल्कि नाना के ऊपर बढ़ गया है. दो शहरों की दूरी ‘चुक्कू’ की याद को और बढ़ा देती है. लेकिन ‘चुक्कू’ से मिलने का आनंद शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. उम्र को तकरीबन 20-25 गुना छोटाकर तुतलाती जबान में पोएम दोहराना, खिलौने खेलना में और घर भर में उधम मचाना. यह सिर्फ हमारे घर की और किसी एक चुक्कू की कहानी नहीं है, यह देश के करोड़ों बच्चों और उनकी परवरिश की कहानी है. किरदार अलग हैं, लेकिन कमोबेश हालात वही हैं. बरगद की तरह फैलने वाला बचपन गमले में बोनसाई बन रहा है.
बचपन की परंपरा, उसकी मौजूदा चुनौतियों और भविष्य की तस्वीर को संवेदनशीलता से उकेर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र
साल 1913 में बड़े परदे पर आयी भारत की पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के दर्शकों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इतना बड़ा चलचित्र कभी पांच इंच में सिमट जाएगा. हमेशा ‘लार्जर देन लाइफ’ को मनोरंजन का आधार बनाने वाली फिल्में कभी-भी और कहीं भी देखी जाएंगी. टेलीवीजन धारावाहिकों की तरह फिल्मों कई भाग में देखी जाएंगी. मंच पर रचे जाने वाले नाटक परदे का हिस्सा बनेंगे और हमारे जीवन के कई सच्चे किस्से दर्शकों के दिलों में जगह बनाएंगे. बदलाव का दोस्त भारतीय सिनेमा किसी भी युग के साथ अनबन में नहीं रहा. यही कुछ बताएगा ‘समय के साथ-साथ, दर्शकों के संग-संग चलता भारतीय सिनेमा’....
भारतीय सिनेमा की परंपरा, उसकी मौजूदा चुनौतियों और भविष्य की तस्वीर को संवेदनशीलता से उकेर रहे हैं लोकमत समाचार छत्रपति संभाजीनगर के संपादक अमिताभ श्रीवास्तव
खेल मानव जीवन की रफ्तार और विकास का हिस्सा रहे हैं। शिकार और आत्मरक्षा से शुरू हुआ सफर अखाड़ों, राजमहलों और गांवों तक फैला। लेकिन लंबे समय तक खेल उपेक्षित रहे और अखबारों के आखिरी पन्ने तक सीमित हो गए। 1982 का टीवी प्रसारण और 1983 का क्रिकेट विश्वकप खेलों को नई ऊँचाई पर ले गया। अब खेल सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुशासन, सहयोग, रणनीति और उद्योग हैं। तकनीक, मीडिया और महिला खिलाड़ियों ने इसका चेहरा बदला है। खेल अब पहले पन्ने पर हैं और राष्ट्र गौरव का प्रतीक बन चुके हैं।
खेल की यात्रा, उसके बदलते स्वरूप और आने वाले कल की तस्वीर को संवेदनशील अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहे हैंलोकमत समूह स्पोर्टस हेड और सहायक उपाध्यक्ष मतीन खान