एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस लेखन के लिए उपयोगी है या विध्वंसक? क्या यह लेखन को आसान कर देगा या लेख की मौलिकता को नष्ट कर देगा?
एक लेखक को तकनीक फ्रेंडली बनने के लिए कहा जाता है. लेकिन क्या एआई लेखक की कल्पनाशीलता को टक्कर दे सकेगा? नई तकनीक जब भी आती है, इस तरह की कई शंकाओं के साथ आती है. इस वक्त जिस तकनीक ने हंगामा मचाया हुआ है, उसका नाम है कृत्रिम बुद्धिमत्ता अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस. ऐसे ही तमाम सवालों से इस समय हिंदी का साहित्य समाज जूझ रहा है. पुरानी पीढ़ी तो वैसे भी तकनीक से कम ही जुड़ाव रखती है. कई वरिष्ठ लेखक आज भी लैपटॉप का इस्तेमाल नहीं करते, हाथ से मोटी-मोटी किताबें लिखते हैं. मोबाइल और सोशल मीडिया पर भले वे बहुत सक्रिय हैं. लेकिन एआई उनके लिए एकदम चौंकाने वाली तकनीक है. या कहें कि होश उड़ा देने वाली तकनीक.
- गीताश्री
अब तक यह बात साफ हो गई है कि एआई या कृत्रिम मेधा कभी भी साहित्य का दस्तावेजीकरण नहीं कर सकता, जिस भाव से लेखक साहित्य को रचता है, वह भाव एआई के दायरे से परे हैं.
दरअसल यह कम्प्यूटर विज्ञान का क्षेत्र है, जो एल्गोरिदम पर आधारित है और यह इंसानी सोच-समझ के अनुसार कार्य कर सकता है. आसान शब्दों में समझें तो मानव कृत वह बला जिसमें मशीनों को मानव व्यवहार पर प्रतिक्रिया करना और उसकी व्याख्या करना सिखाया गया है. एआई मानव के समान अपने अनुभवों से सीख सकता है और समय के साथ अधिक बुद्धिमान बन सकता है, इस प्रक्रिया को मशीन लर्निंग के नाम से जानते हैं. एआई फिल्मों को कई स्तर पर प्रभावित कर सकता है, प्री-प्रोडक्शन के स्तर पर एआई का इस्तेमाल कास्टिंग, लोकेशन चुनने से ले कर प्री-प्रोडक्शन प्रक्रियाओं को व्यवस्थित करने में किया जा सकता है. स्क्रिप्ट राइटिंग में भी एआई के जरिए लिखी गई पटकथा का विश्लेषण करने के साथ ही नई और ज्यादा व्यवस्थित स्क्रिप्ट लिखी जा सकती है. एआई का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग ऑडियंस एनालिसिस के क्षेत्र में किया जा सकता है, जिसके तहत ऑडियंस डाटा और ऑडियंस प्रिफरेंस का विश्लेषण करके स्टूडियो या निर्माता कंपनी दर्शकों की रुचि के अनुसार फिल्म बना सकेगी.
- डॉ. अमृता सिंह
कार्पोरेट ऑफिस हो या सरकारी दफ्तर, रील (फिल्मी) हो या रियल दुनिया, रेलगाड़ियों के बातूनी यात्रियों से लेकर सोशल मीडिया में अपना हर कच्चा-पक्का ज्ञान उड़ेल देने वालों के बीच सिर्फ एक ही विषय की चर्चा है .
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस. चूंकि विषय बहुत विस्तृत है अत: जिसके दिमाग में जो बात आती है, वह उसे ही किस्से कहानियों की शक्ल में पेश करने को बेकरार है. अब तो इस बहस में हाल में ही रिलीज हुई क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ‘ओपेनहाइमर’ भी शामिल हो गई है क्योंकि इस फिल्म के एक डायलॉग में एआई को मानव सभ्यता के लिए खतरनाक निर्णायक पंच के रूप में प्रस्तुत किया गया है, ‘वे जब तक इसे समझेंगे नहीं, तब तक इससे डरेंगे नहीं और जब तक इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे, तब तक समझेंगे नहीं. ‘लब्बोलुआब यह कि जो लोग हमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से डराते हैं, वे अपनी धारणाओं और निष्कर्षों को लगभग अंतिम सत्य के रूप में पेश करने की जिद में अड़े होते हैं. उनका पहला ही जुमला होता है, ‘मानव सभ्यता के सामने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक आपदा की तरह आ खड़ी हुई है.’
- लोकमित्र गौतम
क्या बुद्धिमत्ता भी ‘कृत्रिम’ हो सकती है? पहले तो यही सवाल उठा था मन में जब पहली बार सुना ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’.
क्या बुद्धिमत्ता भी ‘कृत्रिम’ हो सकती है? पहले तो यही सवाल उठा था मन में जब पहली बार सुना ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’. यह बला आपके ई-मेल्स लिखेगा, पढ़ाई करेगा, हेल्थ टिप्स देगा, वर्चुअल असिस्टेंट बनके मदद भी करेगा. इतना ही नहीं एआई आपकी भाषा का चुटकियों में अनुवाद कर सकता है. इसकी मदद से आप किसी भी चेहरे को अपना चेहरा बना सकते हैं, आवाज बदल सकते हैं, देसी-विदेशी भाषा बदल सकते हैं, एनीमेशन डाल सकते हैं.... मतलब, चाहे जो कर सकते हैं... वो भी चुटकियों में. यही कारण है कि धीरे-धीरे यह आश्चर्य-कौतुहल-उत्सुकता डर में तब्दील हो रही है. दुनिया खौफजदा है कि अब सबकुछ बदलने वाला है. एआई के कारण करोड़ों नौकरियां जा सकती हैं. हाल ही में एआई के जनक सैम ऑल्टमन ने दुनिया के समक्ष स्वयं स्वीकार किया है कि वो एआई को लेकर भयभीत हैं. कृत्रिम बुद्धिमत्ता का मानव पर बढ़ता वर्चस्व, एक डर की बात तो है ही!.
- डॉ. सुरेखा ठक्कर
कहते हैं दूध का जला छाछ फूंककर पीता है, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस गांव में क्या आया लोग लिम्का (कोल्डड्रिंक) भी फूंक-फूंककर पीने लगे हैं. हर दिन कुछ न कुछ नया लफड़ा.
अपने-अपने नजरिये से ‘हाथी की व्याख्या करती अंधों की फौज’ की तरह ही एआई को भी बयां किया जा रहा है. लेकिन हर एक शख्स आधे-पूरे ज्ञान के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल में जुटा हुआ है. कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह दीवाने हैं, तो कुछ खुद की शादी में अब्दुल्ला बनने को आतुर. नेताजी को चिंता है कि उनके कृत्रिम भोलेपन से बेवकूफ बनने वाले लोग कहीं कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस्तेमाल से उनकी वास्तविक सच्चाई को जान न लें. एआई के अधपके ज्ञानधारियों की यही फौज जाने-अनजाने में खुद की बुद्धिमत्ता को ही ठेंगा दिखा मखौल का पात्र बन रही है.
- किरण नारायण मोघे
मुगल बादशाह औरंगजेब के पोते शहजादा अज़ीम-उश-शान के नाम से पहचान कायम करने वाला नज़ीमाबाद (आज का पटना) कभी एक-से-बढ़कर-एक फनकारों की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर था.
महलों की शान-ओ-शौकत को टक्कर देने वाले तवायफों के कोठे और शाम ढलते ही उस ओर से छिड़ने वाली तान शहर के हर फनपरस्त शख्स को बुत में तब्दील कर दिया करती थी. उर्दू के मशहूर इतिहासकार और संस्मरण लेखक बदरुद्दीन साहब ने अपनी किताब ‘हकीकत भी कहानी भी’ में कुछ इस अंदाज में ‘बड़ी कनीज़’ का खूबसूरत जिक्र किया है. वे लिखते हैं, ‘‘रोजाना शाम के वक़्त एक लहकती हुई तान दूर फिज़ां में बुलंद होती. सारी फिज़ा उसकी दिलकश तान से मस्त हो जाती. कुछ देर के बाद एक अधेड़ उम्र की औरत नीमवार फ़तगी (तवायफों द्वारा पहना जाने वाला पारंपरिक परिधान) में आहिस्ता-आहिस्ता कश्मीरी कोठी की तरफ से सदर गली के जानिब चलती हुई नजर आती. दस कदम चलती और रुक जाती. रुक जाती तो फिर ऐसी पाटदार आवाज आती जो सुनने वाले को मस्त कर दे, फिर अपना राग छेड़ती. दुकानदार अपना काम छोड़ देते और राहगीर रुक कर उसका गाना सुनने लगते. यूं ही गाती हुई वह राह से गुजरती और शाहदरा तक पहुंचती. वहां तक पहुंचने के बाद उसका गाना खत्म हो जाता. आगे बढ़कर न जाने कहां चली जाती.
- अरुण सिंह
कला की दुनिया में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है, जिससे कला की एक नई शैली उत्पन्न हो रही है, जिसे आजकल एआई कला के नाम से जाना जाता है.
एआई कला के भविष्य और कला जगत पर इसके प्रभाव के साथ-साथ इसके प्रति पारंपरिक कलाकारों और आलोचकों की अलग-अलग धारणाएं हैं. कला में एआई के उपयोग ने कई तरह की बहस छेड़ दी है. संगीत की धुनें तैयार करने, चित्र बनाने और कविताएं लिखने के अलावा फिल्म निर्माण सहित बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें बड़े अनुपात में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. एआई तकनीक में प्रगति से कलाकार और डिजाइनर अपनी रचनात्मकता को नए आयाम देने के लिए एआई एल्गोरिदम का उपयोग कर रहे हैं. फिलहाल हर कोई इसको लेकर उत्साहित है. मगर इसके साथ ही कई तरह की जिज्ञासा व प्रश्न पैदा होते हैं कि क्या कृत्रिम तरीके से विकसित की गई बौद्धिक क्षमता कलाओं के स्वरूप को बदल सकती है? क्या कृत्रिम बौद्धिकता मानव मस्तिष्क के सोचने के तरीके को प्रभावित करेगी? क्या भविष्य में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दृश्य कला जगत अनुसरण करेगा?
- राजेश्वर त्रिवेदी
हम्पी तुंगभद्रा नदी के किनारे बसी यह नगरी रामायण काल में किष्किंधा नगरी के नाम से प्रसिद्ध थी.
यह पवनपुत्र हनुमान की जन्मस्थली भी है और यहीं के मलयगिरि जंगलों में माता सीता की तलाश करते हुए पहुंचे प्रभु श्रीराम की वानर राज सुग्रीव से भेंट हुई थी. आज का हम्पी भले ही पत्थरीली पहाड़ियों और खंडहर में तब्दील हो गया हो लेकिन 7वीं सदी में यह विजयनगर साम्राज्य का प्रमुख स्थान था. यह कहना ज्यादा सही होगा कि हम्पी कभी मंदिरों का शहर था. अलग-अलग पहाड़ियों पर अलग-अलग मंदिर. कभी खूबसूरत राजधानी रही हम्पी आज खंडहरों का शहर बनकर रह गया है. चारों तरफ मंदिरों के खंडहर हैं. विशाल मंदिरों को तोड़ना संभव नहीं था इसलिए आक्रांताओं ने मूर्तियों को खंडित कर दिया. कला और स्थापत्य के नजरिए से वे हमारे लिए धरोहर हैं. सभी मंदिरों का निर्माण पत्थरों से किया गया था शायद इसीलिए उनके भग्नावेश आज भी सुरक्षित हैं.
- रविशंकर रवि
स्वयंसेवी संगठन ‘पीपल अगेंस्ट एक्सप्लॉयटेशन ऑफ चिल्ड्रन’ (पेस) ने ‘ओए छोटू’ संस्कृति के खिलाफ हल्ला बोला.
शुरुआत की गई, ढाबों और होटलों से और अंत हुआ कारखानों-फैक्ट्रियों में काम कर रहे बाल मजदूरों की मुक्ति कराने से. पर यह इतना आसान नहीं था. पेस के सदस्यों को सरकार और समाज, दोनों को राजी करना था, जिसके लिए उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़े. न उद्योगपति इस बात के लिए राजी होते थे कि लगभग मुफ्त में हासिल होने वाले बाल मजदूरों को अपने शिकंजे से आजाद कर दें.
- संदीप अग्रवाल