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बदलाव ने मनुष्य का जीवन समृद्ध किया

Deepotsav

‘दीप भव’ नहीं पढ़ा, तो क्या पढ़ा?

मुनष्य जीवन ही नहीं, बल्कि प्रकृति प्रदत्त हर एक वस्तु में बदलाव निरंतर प्रक्रिया है. हां ! ये अलग बात है, कि हम इस तब्दीली को रंग-बिरंगे चश्मे से देखते हैं या फिर श्वेत-श्याम में उलझकर रह जाते हैं. आसपास की दुनिया में बदलाव की ऐसी कहानियों का भंडार पड़ा है और निश्चित रूप से इस बदलाव ने मनुष्य का जीवन समृद्ध किया है. बदलाव की इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण सारथी रहा है हमारा दिमाग, जिसे प्रकृति ने ऐसा डिजाइन किया है कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्वों को भी तलाश ले. यह अलग बात है कि प्रकृति ने यह मनुष्य पर ही छोड़ दिया कि वह अपने दिमाग का कितना उपयोग कर पाता है. जीवन से जुड़े बदलाव के तमाम आलेखों के साथ ही रोचक विषय-वस्तुओं से समृद्ध ज्वलंत विचारपूर्ण आलेख हम इस बार प्रस्तुत कर रहे हैं. यह अंक बच्चों-किशोरों-युवाओं समेत प्रत्येक आयु-वर्ग से जुड़ी सरस-सरल पठनीय सामग्री से परिपूर्ण है.

जलते हैं दिल में दिये

कभी त्यौहारों में हलवाई की मिठाइयों से ज्यादा मिठास होती थी. तीज-त्यौहारों पर पूरा कुनबा जुटता था. हजार-पांच सौ किलोमीटर का सफर तय करके अपने-अपने बिस्तरबंद और टीन के बक्से लेकर परिवार के लोग आते तो बगिया में बहार आ जाती. लेकिन अब संयुक्त परिवार ‘न्यूक्लियर’ में बदल चकुे हैं. घर, आंगन, अटारी सब कुछ वन और टू बीएचके में सिमट गए हैं. गले लगकर बधाइयां देने का वो चलन अब अपने-अपने मोबाइल में सिमटकर रह गया है. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. जरूरी बदलावों को कौन रोक सकता है. संभवत: कुछ कस्बों-गांवों में आज भी ऐसा ही हाल है या नहीं कहा नहीं जा सकता. हो सकता है किसी स्थान पर किसी खानदान ने अपने रीति-रिवाज बचा कर रखे हों, पर अधिकतर तो बदल गए हैं.

त्योहारों की परंपरा, सामुदायिक जीवन, बदलते मूल्यों पर संवेदनशील विचार रख रहे हैं राज्यसभा टीवी के कार्यकारी निदेशक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल

लताएं नहीं रहीं, वृक्ष बन गई हैं लड़कियां

एक स्त्री होने के नाते स्त्रियों की बदलती हुई दुनिया बेहद विश्वसनीय तरीके से बदलती हुई देखी. ये बाद की तीन पीढ़ियां है, मिलेनियल, जेन जेड और और अब अल्फा. इसमें पहले की दो पीढ़ियों ने समाज के सारे रूल ध्वस्त कर दिए. अपने रुल बनाए और अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलने से इनकार कर दिया. सबसे ज्यादा बदली हैं लड़कियां. ये उस माइंडसेट में कतई शामिल नहीं हैं, जिन्हें शादी के नाम पर किसी के गले बांध दिया जाता था. ये ‘जेन अल्फा’ लड़कियों का मोटो है, ‘‘ले-दे के इक जिंदगी ही तो है. क्यूं दूसरों की मर्जी से जिया जाए.’’

समय के साथ आए इन बदलावों के बारे में विस्तार से बता रही हैं प्रख्यात लेखिका गीताश्री

‘गुरुकुल’ अब ‘गुरू..! कूल’

गुरु और विद्यार्थी के बीच आत्मीय परंपरा ने अब पेशेवर की भूमिका का रूप ले लिया है. कभी विद्यारंभ के स्थान कहलाए जाने वाले ‘गुरुकुल’ समाप्त हो चुके हैं. मौजूदा जनरेशन के अनुरूप ‘गुरु कूल’ हो चुके हैं और अपने विद्यार्थियों को ज्ञान के ‘कैप्सूल’ पाठ्य-पुस्तकों, पेपरसैट और अन्य गतिविधियों में बांधकर उपलब्ध कराते हैं. कभी साधना, श्रम और कठोर दिनचर्या वाली शिक्षा ने अब व्यावसायिकता और धनार्जन के नाम पर आधुनिकता का चोला ओढ़ लिया है. मीडिया और इंटरनेट आदि की उपलब्धता ने कुशिक्षा के जाने कितने नए रास्ते खोल दिए हैं. आज का विद्यार्थी येन-केन-प्रकारेण आर्थिक दृष्टि से उत्पादनशील नागरिक बनाना चाहता है.

शिक्षा की परंपरा, वर्तमान स्थिति और भविष्य की दिशा पर गहन विमर्श प्रस्तुत कर रहें हैं अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति एवं प्रख्यात शिक्षाविद्‌ गिरीश्वर मिश्र

सौ बरस की ओर अग्रसर बोलता सिनेमा

भारतीय सिनेमा ने मूक युग से लेकर डिजिटल और ओटीटी युग तक कई मोड़ देखे। अब 2031 में इसकी शताब्दी मनने जा रही है. आज ओटीटी और ग्लोबल मार्केटिंग के बीच सिनेमा की चुनौती कंटेंट और संवेदनशीलता बनाए रखने की है। हिंदी सिनेमा से हमारी उम्मीदें बढ़ गयी हैं क्‍योंकि अब हमें पता है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं में और दुनिया के दूसरे देशों में कैसा सिनेमा बन रहा है। ऐसे में हिंदी सिनेमा के सामने कड़ी चुनौती है। देखना ये है कि क्‍या वो हमारी उम्मीदों पर खरा उतर पायेगा। प्रश्न यह भी है कि क्या सिनेमा महज़ कमाई और स्पेशल इफेक्ट्स तक सीमित रहेगा या समाज की सच्चाई और संवेदनाओं को फिर से परदे पर उतारेगा?

भारतीय सिनेमा के पिछले सौ बरसों का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर रहे हैं विविध भारत के उद्‌घोषक एवं वरिष्ठ लेखक यूनुस खान

टिमटिमाते पीले बल्बों वाली अयोध्या अब दुधिया चका-चौंध में नहाई रहती है

अयोध्या तब और अब में अंतर कर पाना आसान है. क्योंकि तब से लेकर अब तक यहां कार्तिक पूर्णिमा स्नान, सावन झूला, चैत्र रामनवमी का महत्व जस का तस है. कभी टेंट में समय बिताने वाले राम लला अब अपने जन्मस्थान पर बने भव्य मंदिर में विराजमान है. तब की तरह अब भी मेले लगेते हैं, लोग जुटते हैं लेकिन पीले बल्बों की टिमटिमाती रोशनी में लगने वाले मेलों का स्थान अब नख से लेकर शिखा तक दुधिया रोशनी में लिपटी चकाचौंध ने लिया है. पत्थरीली और मिट्‌टी की पगडंडियों के स्थान पर अब जहां-तहां काले कार्पेट सी सड़कों ने ले ली है. मंदिर निर्माण के साथ ही अयोध्या में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या निरंतर बढ़ने लगी, देश-विदेश से श्रद्धालु आने लगे.

अतीत से वर्तमान तक अयोध्या की यात्रा का सजीव चित्रण कर रहे हैं त्रियुग नारायण तिवारी

पर्यटन की पसंदीदा जगह बनता अंतरिक्ष

मानव की अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत 1960 के दशक में यूरी गागरिन और अपोलो-11 से हुई थी. तब यह केवल अंतरिक्ष यात्री और वैज्ञानिकों तक सीमित थी, लेकिन 2001 में डेनिस टीटो पहले पर्यटक बने और अब आमजन के लिए भी राह खुल रही है. पुनः प्रयोज्य रॉकेट और निजी कंपनियों की पहल ने लागत घटाई है. वर्जिन गैलेक्टिक, ब्लू ओरिजिन और स्पेस एक्स जैसी कंपनियां अंतरिक्ष सैर को संभव बनाने में जुटी हैं. भारत भी इसमें पीछे नहीं है, ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला का चयन इसका प्रमाण है. सुरक्षा और खर्च की चुनौतियों के बावजूद भविष्य में अंतरिक्ष पर्यटन रोमांच और नए अवसरों की दुनिया खोलेगा.

अंतरिक्ष यात्रा के इतिहास, वर्तमान परिदृश्य और भविष्य की संभावनाओं का सारगर्भित चित्रण कर रहे हैं विज्ञान लेखक अभिषेक कुमार सिंह

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'उलट सुलट'

माणूस, मशीन आणि 'मॅजिक'

लोकमत दीपोत्सव २०२५

अंक नव्हे, उत्सव

दीपोत्सव
तीन लाख प्रतींचा टप्पा ओलांडून जाणारं
मराठी प्रकाशनविश्वातलं सन्मानाचं,
देखणं आणि समृद्ध पान

Deepotsav

दीपोत्सव 2023

3,00,000 लाखांचा विक्रमी खप ओलांडणारं
मराठी प्रकाशन विश्वातल्ं समृध्द पान

दीपोत्सव 2022

3,00,000 लाखांचा विक्रमी खप ओलांडणारं
मराठी प्रकाशन विश्वातल्ं समृध्द पान

दीपोत्सव 2020

‘दोन लाखांचा’ खप आणि वाचकप्रियतेचं
शिखर गाठणारी समृध्द गोष्ट.

दीपोत्सव 2019

३,०१,२६७ प्रतींचा खप ओलांडणारं
मराठी प्रकाशनविश्वातलं सन्मानाचं,
देखणं आणि समृद्ध पान

जांभळा

ओल्या रंगांनी भिजलेले ब्रश कॅनव्हासवर

जिवंत करतात ते चित्र

आणि स्टायलसच्या टोकाने आयपॅडच्या स्क्रीनवर

काढलेले चित्र...

ही वेगवेगळी असते का जादू?

एक चित्रकार जेव्हा

'इकडून' 'तिकडे’ जायचे ठरवतो,

तेव्हा कसा होतो त्याचा प्रवास?

- चंद्रमोहन कुलकर्णी

इत्र

कनौजमधली परफ्युमरी आहे ही.

उकळत्या रांजणात फुलांच्या पाकळ्या

खाली धडाडून पेटलेल्या भट्टया. ...

स्पर्शानेही कोमेजणाऱ्या नाजूक फुलांमधलं अत्तर

हे असं धगधगत्या अग्निकुंडातून काढतात?

जगाला वेड लावणाऱ्या कन्नौजी अत्तरांच्या

घमघमत्या दुनियेतून केलेल्या

धुंद भटकंतीची गोष्ट.

- शर्मिला फडके

मायोंग

'ब्लॅक मॅजिक'साठी प्रसिध्द असलेल्या

या गूढ, रहस्यमयी गावात काय आहे?

जादूटोणे, काळी जादू, छा छू उतारे,

टाचण्या टोचलेल्या काळ्या बाहुल्या...

की 'माणसं'?

आसाममध्ये गुवाहाटीपासून दोनेक तासावरच्या

एका रहस्यमयी दुनियेचा शोध

- मेघना ढोके

युरोपातलं चेटूक

जर्मनीतलं ब्लॅकफाॅरेस्ट.दुकानांच्या खिडक्यांमध्ये

कधी डोकावलात, तर दचकालच तुम्ही!

- तिथे काळेकाळे दात विचकत हसणाऱ्या

चेटकिणी बसलेल्या दिसतील!!

इतक्या प्रगत जगात हे काय भलतंच?

मध्ययुगीन युरोपातल्या काळोख्या अंधारवाटांचा

अभ्यास करताना भेटलेल्या

चेटकिणी आणि सैतानांची कहाणी

- वैशाली करमरकर

फास्ट

अखंड पळत राहा, सतत सतत नवे शिकत राहा,

माहिती शोधत राहा, टार्गेट कम्प्लीट करा,

लाईक-शेअर-सबस्क्राईब करा,

हे आपले काय चालले आहे? आणि का?

आपण असे कधीपासून धावायला लागलो?

आपल्या आयुष्याला वेगाची आग लागली आहे,

जळत जळत आपली राख होते आहे,

याचे भान आपल्याला आहे का?

- विश्राम ढोले

.... स्लो

मन लावून जगण्यातला सुकून.

सहज श्वास घेता घेता संथ लयीत वास घेण्याची,

चवी चाखण्याची, नाती राखण्याची,जगण्याची संधी...

हे हरवले सुख परत मिळवता येईल का?

जगभरातल्या एका धडपडीची 'निवांत' गोष्ट

धावत सुटलेल्या बसमधून 'खाली' उतरून

शांत, संथ, साधे आयुष्य जगायला निघालेल्या

माणसांनी शोधलेल्या पर्यायाची कहाणी

- प्राजक्ता पाडगांवकर

पिकलेला फणस

२०५० साली भारत जगातला

'सर्वात म्हातारा देश' असेल.

या देशातल्या ज्येष्ठ नागरिकांच्या मनात

घोंघावणाऱ्या प्रश्नांवर कुणी काही उत्तरं

शोधते आहे का?

तर हो, आणि नाही!

वेगाने वृद्ध होत चाललेल्या भारतातल्या

ज्येष्ठ नागरिकांच्या जगातली

जुनी दुःखं आणि नव्या सुखांचा शोध

- वंदना अत्रे

डायपरपासून डायपरपर्यंत...

'इंडिपेंडन्ट लिव्हिंग'ची व्यवस्था,

'असिस्टेड केअर फॅसिलिटी’मधलं एकाकीपण

आणि तरीही जगण्याचा 'उत्सव' करण्याचा

सळसळता उत्साह.. हे सारं या अमेरिकेत

कुठून येत असेल?

अमेरिकेतलं 'ओल्ड एज'

भारतातल्या 'वार्धक्या'पेक्षा वेगळं असतं?

शिकागोपासून फ्लोरिडापर्यंतची कहाणी

- धनंजय जोशी

घ्या... वापरा... फेका!

ऊठसूट शॉपिंग करायला सोकावलेल्या

उतावीळ, अतृप्त लोकांची कपाटं गच्च भरून

ओथंबून शेवटी गळायला लागतात, तरीही

त्यांना नवे कपडे विकत घ्यायचेच असतात!!

- का?

घराघरातल्या कपाटात शिरलेला,

पाणी ढोसणारा, प्लास्टिक ओकणारा,

'फास्ट फॅशन' नावाचा राक्षस

- माधुरी पेठकर, भक्ती बिसुरे

सॅन्टा फे

अमेरिकेच्या न्यू मेक्सिको राज्यात

सॅन्टा फे ऑपेरा कंपनीचे कॉश्च्युम शॉप.

ऑपेरातल्या नाटकांची वेशभूषा इथे घडते.

संथ लयीची जादू टाचून दिलेल्या या जगातल्या

तीन उन्हाळ्यांची गोष्ट

ऑपेराच्या रंगमंचावरल्या लयदार झग्यांच्या

हातशिलाईचे, सुया-दोरे-बटणे आणि मण्यांचे,

सुरस आणि चमत्कारिक दिवस

- नीरजा पटवर्धन

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बाबुजी ते आराध्या अशा चार पिढ्यांमध्ये धावणाऱ्या ‘संस्कारा’च्या नदीविषयी सांगणारे अमिताभ बच्चन... बिल गेट्स या ‘श्रीमंत’ माणसाशी लग्न झाल्यानंतर ‘गरिबी’शी नातं जोडणारी मेलिन्डा गेट्स... ‘पैसा कुछ नही होता यार’ अशी खात्री देणारा शाहरूख... कार्पोरेट बोर्डरूमच्या पलीकडले रतन टाटा, नारायण मूर्ती आणि आनंद महिंद्रा... नोबेल विजेतेडॉ. अभिजित बॅनर्जी...मसुरीजवळच्या जंगलात राहणारे रस्किन बॉन्ड ... ही ‘असली’ माणसं कुठं भेटणार ‘दीपोत्सव’शिवाय?
जिथं रस्ता नाही, पण मोबाईलचं नेटवर्क आहे, अशा कानाकोपऱ्यांतल्या माणसांच्या आयुष्यात डोकावत कोण भटकणार ‘दीपोत्सव’शिवाय?
' पुरुष' आणि 'खुर्ची' अशी सूत्रे घेऊन त्याभोवती त्यांची 'सिक्रेट्स' तरी दुसरे कोण शोधणार ?
काबूलमधल्या शाळेत, इस्रायलमधल्या तेल अवीव या ‘स्मार्ट सिटी’त,
भारत-बांगला देश सीमेवरल्या एन्क्लेव्हमध्ये तरी कोण जाणार ‘दीपोत्सव’शिवाय?
कन्याकुमारीपासून निघून थेट श्रीनगरपर्यंत बत्तीस दिवस एकतीस रात्रींच्या थरारक रोडट्रीपमध्ये भेटलेल्या गावांच्या, शहरांच्या, विजयांच्या, पराभवांच्या, बदलांच्या आणि बदलत्या माणसांच्या कहाण्या कोण शोधणार ‘दीपोत्सव’शिवाय?‘रामनाथ गोयंका अवॉर्ड फॉर एक्सलन्स इन जर्नलिझम’ या प्रतिष्ठेच्या राष्ट्रीय पुरस्कारानं गौरवलेला,संपादनापासून मांडणीपर्यंत सतत नवे प्रयोग करणारा आणि मराठी वाचकांसाठी दरवर्षी एका नव्या अनुभवाचं दार उघडणारा दिवाळी अंक!
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अंक नव्हे, उत्सव!
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