ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के अभिनय से कौन नहीं वाकिफ है लेकिन वे एक शानदार गायक भी थे. बीबीसी के महेंद्र नाथ कौल को इंटरव्यू देते वक्त उन्होंने एक खूबसूरत गजल गाई थी. दंग रह जाएंगे आप यह गजल सुनकर.
मुहम्मद यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार, सिनेमा जगत का वह नाम, जिसने अपनी संजीदा अदाकारी से दर्शकों और अवाम पर वह छाप छोड़ी कि ‘ट्रेजेडी किंग’ के खिताब से नवाजे गए. आज भले ही वे सक्रिय नहीं हैं, लेकिन उनकी फिल्मों की लोकप्रियता बरकरार है. वर्ष 1944 में फिल्म ‘ज्वारभाटा’ से शुरू हुआ दिलीप कुमार का फिल्मी सफर 20वीं सदी के अंत (1998) तक जारी रहा. लगभग 6 दशक लंबे इस सफर में उन्होंने फिल्मों के माध्यम से किरदारों को जिया और जीवंत किया. वे उभरते हुए कलाकारों के आदर्श हैं. वैसे दिलीप साहब मीडिया से दूर ही रहना पसंद करते हैं, लेकिन 1970 में प्रसिद्ध रेडियो प्रस्तोता, कार्यक्रम निर्माता महेंद्र नाथ कौल ने बीबीसी के लिए उनका खास इंटरव्यू किया था. इस इंटरव्यू में दिलीप कुमार ने अपनी शख्सियत, अभिनय जगत में कदम रखने से लेकर फिल्मी सफर, अदाकारी के जुनून, सिनेमा का समाज और राष्ट्र के निर्माण में योगदान, सांस्कृतिक तरक्की जैसे विषयों पर विस्तृत चर्चा की.
- महेंद्र नाथ कौल
शाम ढले वो सजता है, संवरता है और देखते ही देखते खुद को एक खूबसूरत लड़की के रूप ढाल लेता है. पूरी रात ढलने तक नाचता है. स्टेज से उसकी अदाएं सीधे दर्शकों के दिल तक उतर जाती हैं और दर्शक भी झूमने लगते हैं. कौन सा है वो नाच...?
1978 की वर्षा ऋतु कुछ ज्यादा जालिम थी. आकाश से छोटी मछलियां बरसती थीं. आठवीं क्लास की किशोर लड़की यानी मैं मौसम के विरुद्ध जाने पर आमादा थी. उस बरसती दोपहर में मुझे पहले ही देर हो चुकी थी, तेज-तेज कदम बढ़ाती हुई घर की ओर बढ़ी चली जा रही थी. पैरों में प्लास्टिक की चप्पल थी जो छींटे उड़ाती हुई चल रही थी मेरे संग-संग.
वे मेरे गहरे दु:ख और अवसाद के दिन भी थे. मेरे भीतर बहुत कुछ बदल रहा था. देह जगने की उम्र भी यही होती है. तब देह बहुत सवाल करती है. सारे सवाल अनुत्तरित. अपने सवालों के बोझ से, दोस्तों की जुदाई से बोझिल मैं अजीब-सी तरस का सामना कर रही थी. कक्षा में कई लड़कियां थीं, उनमें एक लड़की मीना मुझे रोज स्नेह से निहारा करती थी. जब देखूं, वो टकटकी लगाए मुझे घूरे जाए. मेरे भीतर का जमा हुआ सन्नाटा दरकने लगा था. फिर एक दिन अचानक कुछ घटित हुआ. मेरे लिए पहली पहली बार था ये सबकुछ. मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार न थी.
- गीताश्री
चीन की हरकतों की वजह से लद्दाख फिर चर्चा में है लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस सर्द रेगिस्तान के पोर-पोर में खूबसूरती बसी है. हमारे साथ चलिए लद्दाख की अद्भुत और मनोहारी दुनिया में. एक दिलचस्प यात्रा वृत्तांत.
रांची से दिल्ली, दिल्ली से लेह. जुलाई माह हमारे घूमने के हिसाब से सही नहीं; क्योंकि इस वक्त बच्चों के स्कूल खुले होते हैं. मगर कई बरसों से, बल्कि बचपन में जब से पढ़ा था लद्दाख के बारे में, एक बार जरूर जाना है, ऐसी इच्छा थी, और यही वक्त सही था जब बर्फ ज्यादा नहीं पड़ती हो, ताकि लद्दाख की वास्तविक सुंदरता हम जीभर कर निहार सकें.अनछुआ सौंदर्य है लेह-लद्दाख का. एक ऐसी जगह जहां प्रकृति ने कदम-कदम पर इतना सौंदर्य बिखेरा है कि आप अभिभूत होकर देखते रह जाएंगे. वैसे तो लेह जाने के लिए मई के अंतिम सप्ताह से सितंबर तक का मौसम अच्छा माना है, मगर बर्फीला सौंदर्य देखने के इच्छुक लोग सर्दियों में भी जाना पसंद करते हैं. लद्दाख की संस्कृति और धार्मिक, ऐतिहासिक विरासत इसे पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनाती है. समुद्र तल से करीब 10,000 किमी की ऊंचाई पर पहुंचकर वहां का जो सुंदर अनुभव मिलेगा, वो आप जीवनपर्यंत कभी नहीं भूल सकते.
- रश्मि शर्मा
उस फिल्म में ‘जय’ के यादगार किरदार के लिए अमिताभ पहली पसंद नहीं थे और ‘ठाकुर’ के लिए प्राण के नाम पर विचार चल रहा था. यहां तक कि हेमा भी बसंती बनने के लिए तैयार नहीं थीं. पढ़िए कालजयी फिल्म ‘शोले’ के बनने के दौरान परदे के पीछे की दास्तान.
अक्सर मेगा हिट फिल्म ‘शोले’ को लेकर सवाल उठता है कि ‘शोले’ जैसी फिल्म दोबारा कब बनेगी? इसका जवाब देने की अनेक फिल्मकारों ने कोशिश की. यहां तक कि फिल्म के निर्देशक रमेश सिप्पी ने भी ‘शान’ जैसी मल्टी स्टारर फिल्म बनाकर ‘शोले’ भड़काने की कोशिश की, मगर उन्हें भी असफलता ही हाथ लगी. वजह सीधी थी कि ‘शोले’ जैसी कालजयी फिल्में बनती नहीं हैं, बल्कि बन जाया करती हैं. तभी फिल्मकार शेखर कपूर ‘शोले’ के आगे और पीछे भारतीय फिल्मों का इतिहास ‘बीसी’ और ‘एसी’ की तरह मानते हैं. दरअसल इस ब्लॉकबस्टर फिल्म को बनाने में कोई रणनीति तैयार नहीं की गई थी. केवल फिल्मकार रमेश सिप्पी ‘सीता और गीता’ की सफलता के बाद एक बड़े कैनवास की फिल्म बनाना चाहते थे. जिसके लिए वह अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे.
- अमिताभ श्रीवास्तव
एक बार आदिवासियों के साथ महाश्वेता भोजन कर रही थीं. भोजन में केले के पत्ते पर केवल भात परोसा गया. महाश्वेता ने नमक मांगा तो एक अधेड़ आदिवासी ने कहा- नमक नहीं है. महाश्वेता ने कहा कि किससे सानकर खाऊं तो उसने कहा कि भूख से सानकर खाइए. वैसा ही हुआ.
बांग्ला भाषा के लगभग सारे लेखक ठीक दो दशक पहले 1997 में जब विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं के पूजा विशेषांकों के लिए रचनाएं लिखने में व्यस्त थे, तो किंवदंति लेखिका महाश्वेता देवी शबर आदिवासियों के लिए चावल, दाल और कपड़े जुटाने के लिए दिन-रात एक किए हुए थीं. लिखना प्राय: ठप था. चौबीसों घंटे उनके दिमाग में सिर्फ शबर मेला था. 1997 के सितंबर-अक्तूबर के दौरान महाश्वेता दी से जो भी मिलता, उससे कहतीं, ‘‘आठ-नौ नवंबर 1997 को पुरुलिया जिले के राजनवगढ़ में शबर मेला है. उस महान मेले में आने वाले शबर आदिवासियों के खाने-पीने की व्यवस्था करनी है. कपड़े भी चाहिए. आप यथासामर्थ्य मदद कीजिए.’’ जब भी शबर मेला होता तो उसकी पूरी व्यवस्था संभालने का जिम्मा वे अपने ऊपर ले लेतीं.
- कृपाशंकर चौबे
अप्रैल के पहले सप्ताह में अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में इंटरनेट पर ‘आई कान्ट स्मेल’ जैसे वाक्यों को खोजने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई. इस सर्चिंग डाटा के विश्लेषण के बाद विशेषज्ञों ने देखा कि यह महामारी के प्रत्यक्ष प्रसार से मिलता-जुलता है. डाटा की विलक्षण शक्ति को बेनकाब करता लेख.
युआन नोवा हरारी की भविष्यवाणी विचलित करने वाली है. वे कहते हैं कि बुखार और खांसी जैविक क्रियाएं हैं. उसी तरह क्रोध और आनंद भी. जिस तकनीक से किसी व्यक्ति का बुखार और खांसी की जांच की जा सकती है, उसी की सहायता से खुशी और गम के अहसास का भी पता लगाया जा सकता है. सरकार और दिग्गज कंपनियों ने यदि जगह-जगह ‘स्टोर’ की जा रही हमारी जैविक जानकारी का उपयोग करने का मन बना लिया, विश्लेषण किया तो वह हमारे व्यवहार का भी सटीक अनुमान लगा पाएंगी. इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि हमारे व्यवहार पर ही नियंत्रण स्थापित कर लिया जाए. फिर कोई वस्तु हो या नेता, हमें बेचने या थोपने की कोशिशें होंगी. डर इस बात का भी है कि उत्तर कोरिया जैसे तानाशाही वाले देश में लोगों को ऐसा डिजिटल उपकरण पहनने के लिए बाध्य कर दिया जाए, जो हाव-भाव पढ़ सकता हो, तब क्या होगा? जनता के मन और मस्तिष्क में क्या चल रहा है, यह तानाशाह बड़ी आसानी से पता कर लेगा.
- विश्राम ढोले
उन्होंने स्कूल की प्रारंभिक शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और जीवन के 45 साल घूमने में खर्च किए. औपचारिक शिक्षा नहीं मिली लेकिन 150 से ज्यादा किताबें लिखीं. 30 भाषाओं के ज्ञाता थे. दुनिया के बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़ाते भी थे. काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ कहा. वे थे महापंडित राहुल सांकृत्यायन.
उन दिनों तिब्बत जाना और भी कठिन था. करीब दो महीने की पैदल और खच्चर से यात्रा के बाद ही वहां पहुंचा जा सकता था. विदेशियों का तिब्बत में प्रवेश वर्जित था और रास्ते में चोर-डाकुओं का भी भय हमेशा बना रहता था. वे डाकू बेहिचक पहले यात्री को मार डालते थे और फिर उनका सामान लूट लेते थे. ऐसे में 26 वर्षीय राहुल अपनी जान को जोखिम में डालते हुए 19 जुलाई 1929 को तिब्बत पहुंचते हैं. राहुल सांकृत्यायन यहां ऐसे दुर्लभ ग्रंथ और पांडुलिपियों की तलाश में आए थे जो सदियों पहले भारत में नष्ट कर दी गई थीं. दरअसल ये ग्रंथ और पांडुलिपियां नालंदा विहार विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकालय की थीं. ये सारे दुर्लभ ग्रंथ और पांडुलिपियां भारत से ही तिब्बत ले जाए गए थे. पांचवीं सदी से ही तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं का अध्ययन के लिए नालंदा आना शुरू हो गया था. लौटते समय वे बौद्ध भिक्षु यहां से तालपत्र की पांडुलिपियां और दुर्लभ ग्रंथ अपने साथ ले जाते रहे. इस तरह तिब्बत के बौद्ध मठों में ढेर सारी पांडुलिपियां और ग्रंथ जमा होते चले गए.
- अरुण सिंह
वायरस अत्यंत कम सामान लेकर चलने वाला यात्री है. जिनोम से लिपटी प्रोटीन की थैली लेकर वह दुनिया की यात्रा पर निकल पड़ता है. मानव शरीर में घुसने के लिए बहुरूपिये की तरह रूप बदल लेता है. हालांकि सच यह भी है कि वायरस न हों तो मानव भी नहीं होगा.
वायरस को लेकर यह कह पाना मुश्किल है कि वह सजीव है या निर्जीव. कुछ लक्षण सजीवों वाले होते हैं जबकि कुछ दिखाई नहीं पड़ते. ‘यलो फीवर’ फैलने के बाद पहली बार मनुष्य के वायरस से संक्रमित होने का खुलासा हुआ. इस महामारी के बाद वायरस को लेकर जानकारी जुटा रहे वैज्ञानिकों की रिसर्च की दिशा मुख्य रूप से मनुष्य को संक्रमित करने वाले वायरस तक सिमटी हुई है. हालांकि इसके परे भी विषाणुओं की एक दुनिया है, जिससे मनुष्य अब तक अनजान है. वैज्ञानिकों के अनुसार वायरसों की संख्या लाखों में है, उनमें से कुछ हजार के बारे में ही हम जानते हैं. यह अतिसूक्ष्म जीव मानव के शरीर में ठीक वैसे ही प्रवेश करता है, जैसे चोर डुप्लीकेट चाभी से ताला खोलकर घर में घुस जाता है. मानव शरीर में घुसने के लिए वायरस किसी बहुरूपिये की तरह रूप बदल लेता है. मनुष्य की मांसपेशियों में प्रवेश करने के बाद यह तेजी से अपना कुनबा बढ़ाने लगता है. ...ऐसा ही एक वायरस आज मानव जाति के लिए महासंकट बनकर आया है.
- मृदुला बेले
हमारी बहनें सैन्य क्षेत्र में भी कमाल कर रही हैं. वे समंदर की लहरों पर सवार होकर दुनिया का चक्कर लगाते हुए विजय पताका फहरा रही हैं. आसमान की ऊंचाई पर अपना हौसला दिखा रही हैं. लड़ाकू विमानों से हैरतअंगेज कारनामे दिखा रही हैं. पढ़िए दिलचस्प दास्तान.
तत्कालीन ब्रिटिश राज के अधीन भारतीय सशस्त्र सेना में महिलाओं को 1927 में सैन्य नर्सिंग सेवा में भरती किया गया था और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अधिकारी वर्ग में सेना मेडिकल कोर में स्थान देने का निर्णय लिया गया था. लगभग पचास सालों तक यही स्थिति बनी रही और 1992 में भारत सरकार ने महिलाओं को अधिकारी वर्ग में सशस्त्र सेना में कमीशन देने का एक अहम फैसला लिया. शुरुआती दौर में महिलाओं को अस्थाई तौर पर शॉर्ट सर्विस कमीशन दिया जाता रहा था जिसे पांच वर्ष सर्विस के उपरांत चयन प्रक्रिया के अनुसार दो वर्ष और बढ़ाया गया था. 2008 में सशस्त्र सेना में स्थायी कमीशन अर्थात पुरुष सेना अधिकारियों के समकक्ष अपनी उम्र और रैंक के हिसाब से सेवानिवृत्ति और पेंशन और अन्य भत्तों की अहमियत ने सेना के कुछ विभागों में कदम रखा.
- सारंग थत्ते
एक थीं विनीता गोस्वामी जिनकी जादूकला की दुनिया मुरीद हो गई थी जब उन्होंने अपने साथ साज बजाने वालो पियानो वादक को पियानो के साथ हवा में उड़ा दिया था. जादूगर आनंद सुना रहे हैं दुनिया भर की महिला जादूगरों की दिलचस्प कहानियां.
परंपरा से हमारे यहां कुछ ऐसे कार्य मान लिए गए हैैं जो पुरुषों को ही शोभा देते हैैं. उन कार्यों में पुरुषों को ही सबसे अधिक महत्व मिला है और महिलाओं का कार्य पुरुषों के पीछे चलना मात्र माना गया. इसलिए महिलाओं के लिए वे सब कार्य वर्जित हैैं जिनसे भारतीय महिला की छवि टूटने का अंदेशा पैदा होता हो. इसी कारण महिलाएं प्रगति की दौड़ में पिछड़ती जा रही हैैं. इन वर्जित क्षेत्रों में ही एक क्षेत्र जादुई स्पर्धा का भी रहा है. यूं नारी को स्वयं में एक साक्षात जादू की संज्ञी दी गई है. कहा गया है कि उसके इंद्रजाल से बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी भरमा गए हैैं. इस पर भी यदि कोई महिला जादूगरी का काम करे तो यह तो दोहरे जादू की स्थिति हो जाएगी. उससे तो ‘करेला और नीम चढ़ा’ की कहावत चरितार्थ हो जाएगी. इन तमाम वर्जनाओं के बावजूद हमारे यहां भानुमति जैसी जादूगरनियां भी हुर्इं जो अपने पिटारे के कारण अभी भी विश्वविख्यात होने के साथ भारतीय कहावतों में अमर हो गई हैैं.
- जादूगर आनंद
अमृता प्रीतम ने साहिर लुधियानवी के नाम आखिरी खत लिखा लेकिन पोस्ट नहीं किया. छपने के लिए शमा पत्रिका में भेज दिया. लोगों ने प्रतिक्रियाएं दीं लेकिन साहिर का संदेश नहीं आया. अमृता तड़प में जीती रहीं, जिसे आखिरी खत लिखा, उसने पढ़ा ही नहीं. ....पढ़िए यह दिलचस्प दास्तान.
शब्दों के संग रिश्ते को शब्दों में व्यक्त करना सबसे कठिन होता है. कुछ शिल्पी इतने समर्थ होते हैं कि अपने शब्दों से जेहन में चित्र खड़ा करने की ताकत रखते हैं. तुलसी दास, प्रेमचंद, रेणु, वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, धर्मवीर भारती और अमृता प्रीतम, श्रीलाल शुक्ल, अमृतलाल नागर, मालती जोशी ऐसे ही कुछ नाम हैं. वे अपनी भावनाओं को कुछ इस ढंग से बयान करते हैं कि आंसू निकलते हैं और ठहाके भी. होंठ मुस्कुराते हैं तो दिल भर आता है. कभी यही लफ्ज किस्म-किस्म के आवेगों का संचार भी करते हैं , लेकिन शब्दों से शब्दों को जोड़ने का यह हुनर आज कितने लोगों के पास है ? शायद ही कुछ लोग होंगे, जिन्हें आप पढ़ते जाइए. उनकी एक-एक पंक्ति आपको अनगिनत कहानियों और किरदारों के लोक में विचरण कराती चलती है. साहित्य संसार के न जाने कितने साहिर आपके दिमाग में आकर दस्तक देने लगते हैं. हिंदी साहित्य का इसे आवश्यक अंग माना जाए या फिर इसे किस्सागोई की अलग ही विधा. क्योंकि यह केवल गद्य के साथ नहीं है. कविता या गजल के रूप में भी रचनाएं आपके जेहन में दृश्य-संसार रचती हैं. इस विधा या ताकत को आप क्या नाम देना चाहेंगे? यह आप पर ही छोड़ता हूं.
- राजेश बादल
हर साल गुलाबी पंखों वाले फ्लेमिंगो हजारों किलोमीटर का सफर तय करके भारत में आते हैं. कई लोगों के मन में सवाल आता होगा कि अपने बड़े-बड़े पंखों को पसार कर तेजी से यह यात्रा करने के दौरान क्या वह थकते नहीं? चलिए भारत की सरजमीं के स्वर-रंगों में अपने पंखों को सराबोर कर लेने के लिए छटपटाने वाले परदेशी साधकों की दीवानगी भरी दुनिया में...
अभिजात संगीत की दीवानगी के चलते दुनियाभर से भारत की राह पकड़ने वाले दीवाने मुसाफिर! यहां की रग-रग में बसे गायन-वादन-नृत्य के जादू को मुट्ठी में भर लेने के लिए जान की बाजी लगाने वाले, यहां का संगीत अपने देश में लोकप्रिय बनाने का सपना देखने वाले, संगीत सीखते-सीखते यहां भारत को ही अपना घर बना लेने वाले! इस संगीत की खातिर संस्कृत, तमिल, कन्नड़, बंगाली, मराठी सीखने वाले और छोले-पुरी, डोसे की याद में बेचैन हो जाने वाले...!
यह यात्रा भले ही परीक्षा लेने वाली हो, लेकिन इस देश की मिट्टी में मौजूद सत्व और सूर्यकिरणों से ऊर्जा पाकर बहने वाले जल तृप्त कर देने वाले हैं. जीने की समझ और प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की ताकत देने वाली है.
मेहनत की कमाई को सहेजते हुए यहां रहने के दौरान यहां के लोगों, वातावरण, जीने के तौर-तरीकों, खाद्य संस्कृति के साथ तालमेल बिठाने में न जाने कितनों को कई पापड़ बेलने पड़े होंगे; तो फिर ये मुसाफिर यहां के स्वर-लय-ताल से नाता क्योंकर जोड़ लेते हैं?
- वंदना अत्रे
जो भी आता है इनका भरपूर शोषण करता है, इन्हें पैरों तले रौंदता है, इस्तेमाल कर लेता है. लेकिन यह भी होते हैं भारी जीवट के धनी! मरते नहीं...बस जिंदा रहते हैं! उत्तर भारत से मुंबई में रोजी-रोटी की तलाश में आए मजदूरों की कुंद और सीलन भरी दुनिया की यायावरी
गांव में खेती में मजदूरी में घुटने की बजाय शहर जाकर मेहनत करने का जुनून दिमाग में घुसा, कि उत्तरप्रदेश-बिहार से निकलकर दौड़ सीधे मुंबई की ओर! पहले के कुछ दिन गांव वाले रिश्तेदार के घर टिकने के बाद नौकरी-धंधे की तलाश शुरू! फिर आया कोरोना काल. जिनका गांव से नाता टूट चुका था, जिन्हें यह यकीन नहीं था कि गांव लौटकर भी पेट भरेगा, वह यहीं रह गए शहर में. पैदल ही घर को निकले मजदूरों की करुण कथाएं सामने आर्इं, वैसे-वैसे व्हाइट कॉलर जॉब वालों के मन में सवाल उठने लगे. कोरोना संक्रमण की चिंता किए बगैर ये प्रवासी मजदूर शहर छोड़कर अपने गांव की ओर भागे ही क्यों? -सवाल का जवाब दिल दहला देने वाला है.
केवल शारीरिक श्रम के बूते जीने वाले यह मजदूर वास्तविकता में हैं कौन, कहां के, कहां से आते हैं, शहर में रहते कैसे हैं, जीते कैसे हैं, अगर यह देखने कि आप में हिम्मत हो तो हर कदम पर मौजूद मुंबई की झोपड़पट्टियों में आपको बहुत भीतर तक जाना होगा... और एक बस्ती भी छान मारनी होगी. उसका नाम है, ‘काली बस्ती!’
- रवींद्र राऊल
‘हर हिंदुस्तानी यहां एक व्यापारी है, अमेरिका के एक बड़े बाजार में हिंदुस्तानी अपनी प्रतिभा, ज्ञान, कौशल और अनुभव को लेकर आता है और खुद को चढ़ा देता नीलामी पर. अच्छा दाम लग जाए तो क्या खूब-बढ़िया सी नौकरी, सुंदर सा घर, नमकीन सी बीवी और बलार्ड गर्लफ्रेंड सबका सौदा हो जाता है. न बढ़िया दाम लगे तो भी बैरा या दुकानदार की नौकरी ही सही. ले-देकर किसी को यह सब घाटे का सौदा नहीं लगता.
भारतीय आप्रवासन का इतिहास कम से कम पंद्रह सौ वर्ष पुराना है और इस भारतीय आप्रवासन को हम तीन प्रमुख चरणों में बांट कर देख सकते हैं. भारतीय आप्रवासन के पहले चरण का प्रारंभ उस समय से मानना चाहिए जब राजस्थान, गुजरात तथा पंजाब प्रांत के बंजारे अपनी यायावरी प्रवृत्ति के कारण भारत छोड़कर बाहर निकले और यूरोप, अमेरिका होते हुए वे सारे विश्व में फैल गए. ये रोमा कहलाए, कहीं ये सिगनी कहलाए तो कहीं इन्हें जिप्सी नाम दिया गया. इन्हें नाचना-गाना प्रिय था, अपने समूहों में रहते थे, घूमते रहते थे और जहां मन किया, वहीं डेरा डाल लिया और रम गए. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें घुमंतू नाम दिया.
पिछली अर्धशती में स्वतंत्र भारत की एशिया में बढ़ती हुई साख ने विदेश में प्रवासी भारतीय समाज और उसकी भाषा हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाई है. आज विदेश में बसे हुए प्रवासी भारतीय चाहे वे दो सौ वर्ष पूर्व शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गए थे या भारतीय विशेषज्ञ के रूप में विदेश जा कर बसे आज अपने परिश्रम, लगन, ईमानदारी तथा प्रतिभा से वे हर देश में सुशिक्षित, सुप्रतिष्ठित तथा सम्मानित नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित हैं और हर देश में प्रवासी भारतीय समाज की अपनी महत्ता और पहचान है.
- डॉ. विमलेशकान्ति वर्मा
तारीफ और आलोचना से परे इरफान अभिनय के क्षेत्र में कुछ तलाश रहे थे. अगर आप उनके इंटरव्यू लगातार एक क्र म से पढ़ें या देखें तो पता चलेगा कि वह एक अभिनय यात्रा में थे. शायद उन्हें अपनी मंजिल की जानकारी मिल गई थी. वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे थे.
यंू इरफान आजीवन अभिनय के आत्मसंघर्ष में रहे. शुरू के दिनों में खुद के प्रति असंतुष्ट और दु:खी रहते थे, क्योंकि रंगमंच और बाद में टीवी एवं फिल्मों में वे अपने किरदारों को जिस तरीके से सोचते और प्रदर्शित करना चाहते थे, उन्हें वह उसी रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाते थे. उन्हें कई बार लगता था कि वह जो मुंह से संवाद बोल रहे हैं, उसे उनका शरीर नहीं बोल रहा है. एक्टिंग उनके लिए विशेष प्रक्रिया रही. शुरु आती दिनों में तो कुछ निर्देशकों ने उन्हें यहां तक कह दिया कि तुमने खराब एक्टिंग की है. ऐसी टिप्पणियां किसी भी अभिनेता का आत्मविश्वास तोड़ती हैं. उसमें हीनभावना भरती हैं. फिल्म इंडस्ट्री में कई बार निर्माता नए अभिनेताओं को कम पैसे देने के चक्कर में ऐसी टिप्पणी कर देते हैं. उन्हें एहसास भी नहीं रहता कि वे एक कलाकार को मार रहे हैं. दरअसल, ऐसी टिप्पणियों से इरफान नहीं टूटे. उन्हें खुद पर पूरा भरोसा और आत्मविश्वास था. शुरु आती दिनों में उन्हें जब तारीफ मिलती थी, तब भी उन्हें अंदाजा रहता था कि उन्होंने कैसा काम किया है.
- अजय ब्रह्मात्मज
गांव-देहात की जातिगत बंदिशों से छुटकारा पाने की आस पालना वाला बिहारी ‘परदेस’ की ओर आखिर पलायन क्यों करता है-इसी का विश्लेषण है लिट्टी-चोखा में...ये लिट्टी-चोखा बिहार से स्थानांतरित हुए ‘प्रवासी’ मजदूरों के संघर्ष का प्रतीक ही तो है!
महानगर अपने भीतर एक ही समय में अनेक संस्कृतियां, कई तरह की दुनिया को समाए रहते हैं. अलग-अलग तरह के जनसमुदाय, उनकी भाषा, खानपान, उद्योग-धंधे, रहन-सहन, रीति-रिवाजों और विविध संस्कृतियों को सहजता से जज्ब कर लेते हैं, इसी लिए इन महानगरों को ‘मेल्टिंग पॉट’ भी कहा जाता है. ऊपर से ऐसा भले ही मालूम होता हो कि ये सांस्कृतिक विविधताएं एक-दूसरे से घुल-मिल गई हैं, लेकिन ये अनजाने ही परस्पर समानान्तर चलती रहती हैं, और कभी-कभी जब उनका क्षण-भर को दर्शन हो जाता है, तो व्यक्ति विस्मित रह जाता है. इतना ही नहीं तो यह अनुभव महानगरों के संबंध में हमारी समझ को समृद्ध करने वाला और कभी-कभी नए सिरे से हमारी समझ तैयार करने वाला भी होता है. शहरों-महानगरों की बदलती खाद्य संस्कृति का निरीक्षण और उसका ऐंद्रिय अनुभव मुझे महानगरों के भीतर झांकने का एक झरोखा मालूम पड़ता है, तो आमतौर पर निराश नहीं करता.
- मयूरेश भडसावले
आज न शैलेन्द्र हैं, न रेणु- किंतु, ये सिनेमा एवं साहित्य के ऐसे अविस्मरणीय व्यक्तित्व हैं, जिन्हें सिनेमा एवं साहित्य में एक कालजयी परम्परा एवं स्तम्भ की तरह सदियों तक याद किया जाता रहेगा. पढ़िए कालजयी फिल्म ‘तीसरी कसम’ के बनने की रोचक और रोमांचक दास्तान.
‘तीसरी कसम’ का हीरामन ही सिर्फ गुलफाम नहीं था, रेणु दूसरे गुलफाम थे और तीसरे शंकर शैलेन्द्र्र. परदे पर दिखने वाले गुलफाम राज कपूर थे, पर परदे के बाहर वे एक सफल व्यावसायिक फिल्म-निर्माता थे. लेकिन ‘तीसरी कसम’ से राज कपूर की जो छवि निर्मित होती है- देहाती, भोला-भाला, पवित्र मन का और फूल की तरह का निर्दोष, स्निग्ध चेहरा, एक आम भारतीय जन की जीती-जागती छवि- वह अविस्मरणीय है. हिन्दी फिल्मों के इतिहास में यह दुर्लभ है. यह वास्तव में रेणु और शैलेन्द्र के भावों का प्रकटीकरण एवं प्रस्तुतिकरण था. जिस समय शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ कहानी पढ़ी, उसी समय वह गुलफाम मारा गया. उन्होंने बासु भट्टाचार्य से कहानी सुनते ही फणीश्वरनाथ रेणु को 23 अक्तूबर, 1960 को एक पत्र लिखा- ‘‘बन्धुवर फणीश्वरनाथ, सप्रेम नमस्कार. ‘पांच लम्बी कहानियां’ पढ़ीं. आपकी कहानी मुझे बहुत पसंद आयी. फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पॉसिबिलिटीज (संभावनाएं) हैं. आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप में दिलचस्पी है. इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा होगी. धन्यवाद. आपका- शैलेन्द्र.’’
- भारत यायावर
कभी-कभी इतिहास भी वर्तमान के साथ अठखेलियां करता दिखाई देता है, किसे पता था कि कोरोना से बचाव के तौर पर चर्चा में आई हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के मूल में भी सामरिक और राजनीतिक इतिहास भी छिपा हुआ है. इस चमत्कारिक दवाई से संबंधित इतिहास के पृष्ठों को जानें.
जब कोरोना महामारी ने दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था और इससे बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी, तब हमारे देश के चिकित्सकों ने मलेरिया की प्रामाणिक दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का प्रयोग कर इसे चर्चा में ला दिया था. उस समय दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका सहित अनेक देश हमारे देश यानी की भारत से इसकी आपूर्ति करने का आग्रह कर रहे थे, तब यह खबर वैश्विक मीडिया की सुर्खियां बटोर रही थी और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित पूरी दुनिया इसकी चर्चा कर रही थी क्योंकि इस दवा का सर्वाधिक उत्पादन भारत में ही होता है. दिलचस्प है कि हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का निर्माण ‘‘क्विनिन (कुनैन )’’ का सिंथेसिस कर किया जाता है और इस कुनैन की खोज 17वीं सदी ईस्वी में पेरू के एंडीज जंगलों में हुई थी. मूलत: इस पेड़ की छाल का पाउडर आदि बनाकर दवा के रूप में इसका प्रयोग किया जाता था.
- डॉ. शिवाकांत बाजपेयी
शाहजहांपुर आने वाला था. तेज गड़गड़ाहट के साथ ट्रेन गर्रा नदी के पुल पर से गुजर रही थी और मैं सोच रहा था कि यदि ये पुल न होते तो यात्राएं करना कितना दुष्कर हो जाता... पढ़िए धार्मिक पृष्ठभूमि में भावनात्मक मानवीय संबंधों को लेकर बुनी गई एक मार्मिक कहानी.
‘रुपए देने की क्या जरूरत थी?’ पत्नी ने कहा, ‘हम खुद कितने तंग हैं! इस बार तो बच्चों की गुल्लकें तक खाली हो गई हैं.’ पत्नी ने कहा.
‘पापा बहुत सीधे हैं’ बड़ी बेटी राधिका बोली, ‘इन्हें तो जो चाहे मूंड़ ले.’ ‘पापा, आपको शुरू में दस-पंद्रह रुपए से अधिक नहीं देने चाहिए.’ रेखा ने भी रद्दा जमाया, ‘अगर बच्ची के घर वाले आज ही आ जाते हैं तो पचास रुपए मुफ्त में ही रिक्शे वाले के हो जाएंगे. उसके तो मजे हो गए.’ ‘पापा, यह भी हो सकता है कि बच्ची असलियत में रिक्शेवाले की हो और उसने उसे चारे के रूप में आपको फंसाने के लिए, इस्तेमाल किया हो.’ जासूसी उपन्यासों की शौकीन राखी बोली, ‘ऐसी घटनाएं रोज देखने में आ रही हैं.’ मैंने पत्नी की गोद में लेटी अपनी छोटी बेटी की ओर देखा. मुझे लगा अगर वह बोल सकती तो आज वह भी मुझे नसीहत दिए बिना न छोड़ती.
- सुकेश साहनी
वह इतनी तेजी से दरवाजे को धकियाते हुए बाहर की ओर निकला कि दरवाजा जोर-जोर से हिलने लगा. मैं कभी खुलते, कभी बंद होते दरवाजे को देख रही थी और कभी अपने सामने पड़े 100 यूरो के बिल को जो हवा में फड़फड़ा रहा था... पढ़िए ठगी के एक नायाब तरीके की कहानी.
‘‘और फिर एक दिन वह हो गया जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी.’’ उसने अपने खाली गिलास को मेज पर रख दिया. ‘‘पीटर दो दिन से घर नहीं आया था. शायद आज आएगा इसीलिए मैं टीवी चला कर घर को सजाने में जुटी थी कि तभी ब्रेकिंग न्यूज आने लगी. किसी स्कूल में आतंकी हमला हुआ था. मैं घबरा गई. छोटे-छोटे बच्चे बिखरे पड़े थे गुड्डे-गुड़ियों जैसे और फिर एक और न्यूज. किसी चर्च में भी हमला हुआ था और न जाने कितने निर्दोष......’’ कहकर नियारा बेहद डरी दिखने लगी जैसे सब कुछ उसके सामने ही चल रहा हो.
उसकी आंखों की कोरों में आंसू झिलमिला रहे थे. मैंने उसकी दोनों हथेलियों को थाम लिया. बर्फ जैसी ठंडी हथेलियां कंपकंपा रही थीं.
‘‘फिर?’’
‘हमलावर तीन थे जिन्होंने बम विस्फोट किया था. उनमें बार-बार एक चेहरा दिखा रहा था टीवी जो पीटर......’’ उसने नैपकिन से अपना चेहरा छुपा लिया.
‘‘तो क्या वह सचमुच पीटर ही था?’’
‘‘मेरा दुर्भाग्य कि वह पीटर.........’’ वह सहमी सी रो रही थी. ‘‘मेरा कृष्ण, मेरा कान्हा. मैंने प्यार किया था उसे पर वह तो हत्यारा निकला. न जाने कितने मासूमों को मारा था उसने. उसे पुलिस पकड़ चुकी थी.’’
- उषा शर्मा