बेपनाह दौलत के मालिक, जगत सेठ की उपाधि पाने वाले ऐसे परिवार की कहानी सुना रहे हैं अरुण सिंह.
जगत सेठ के घराने का प्रभाव इतना व्यापक था कि अंग्रेजी, डच, फ्रेंच, ईस्ट इंडिया कंपनियों के समेत उस समय सभी बड़े व्यापारिक घराने भी उसके साथ मधुर संबंध बनाए रखना चाहते थे. एक वक़्त ऐसा भी आया कि उसकी तुलना बैंक ऑफ इंग्लैंड से होने लगी थी.
सिनेमा के इतिहास का यह बेमिसाल अफ़साना पढ़िए राजेश बादल की कलम से.
यह दास्तान उन क़िरदारों की है, जो हमेशा-हमेशा के लिए हमारी ज़िंदगी में शामिल हो चुके हैं. लेकिन वे कभी पुराने नहीं पड़ते. वे हमसे धड़कनों की तरह वाबस्ता हैं. मुग़ल-ए-आज़म दरअसल एक ऐसा तिलिस्मी ड्रामा है, जिसने दशकों से हिंदुस्तान को सम्मोहित कर रखा है.
इसका जवाब जानिए पंकज पराशर से.
1940 के दौर में तमंचा जान का नाम हिंदुस्तानी संगीत का दूसरा नाम बन चुका था. बड़े रईसों की महफ़िल में गाने के लिए उनके पास इतने दावत आते कि वे कई लोगों को विनम्रता से मना कर देती. उस दौर की कई रक़्क़ासा और ख़्वाजासराओं ने भी अपना नाम तमंचा जान रख लिया था. पर यहां सवाल यह उठता है कि उन्होंने अपने लिए ‘तमंचा जान’ जैसा अजीबोगरीब नाम क्यों चुना?
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक के झंडों की यात्रा पर ले चल रहे हैं अरविंद कुमार सिंह
भारत सरकार ने 20 जुलाई, 2022 से झंडे से संबंधित प्रावधानों को उदार बनाकर दिन-रात तिरंगा फहराने की अनुमति दे दी, जबकि पहले सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच ही झंडा फहराया जा सकता था. हमारे देश की आन, बान और शान. घर-घर तिरंगा अभियान की काफी चर्चा हुई. इसकी बिक्री में भी बहुत उछाल आया. 500 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार हुआ. 22 जुलाई से सोशल मीडिया पर जोरदार अभियान चला. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तिरंगे की धूम रही. कश्मीर में 6.61 लाख जगहों पर ध्वजारोहण हुआ. वैसे, बीते कुछ सालों में झंडों को लेकर बहुत कुछ देखने को मिला है. आधुनिक भारत में तकनीक बदलने के साथ ध्वज और पताकाएं काफी उन्नत हुईंं. भारत में तिरंगे की बात कुछ और है. इसी ध्वज के नीचे स्वाधीनता संग्राम के अनगिनत नायकों के नेतृत्व में लाखों भारतवासियों ने अनगिनत कुर्बानियां दी हैं.
तुर्रम खां की वास्तविक कहानी बता रहे हैं डाॅ. शिवाकांत बाजपेयी
तुर्रम खान नाम कैसे एक मुहावरे में परिवर्तित हो गया, इसका पता कम ही लोगों को होगा. हाल ही में यह शब्द तब पुनः चर्चा में आया जब संसद में तुर्रम खां को भी अन्य वाक्यांशों के साथ असंसदीय घोषित कर दिया गया. इसके बाद एक सहज जिज्ञासा हुई कि चलो तुर्रम खां की खोजबीन की जाए क्योंकि अधिकांश लोगों को तो यह भी नहीं पता होगा कि तुर्रम खां हकीकत है या कहानी. यकीन मानिए कि तुर्रम खां की हकीकत जानने के बाद आपको अगली बार जब कोई तुर्रम खां कहेगा तो आपको खुद पर गर्व तो होगा ही और स्वयं को हीरो जैसा भी महसूस करेंगे.
श्रीलंका की सीमा से सटे धनुषकोडि से चीन सीमा पर स्थित अरुणाचल प्रदेश के किबिथु की दूरी सड़क मार्ग से चार हजार किमी से अधिक है, जिसकी रोमांचकारी यात्रा पर ले चल रहे हैं रविशंकर रवि.
धनुषकोडी जाना जितना आसान है, किबिथु तक पहुंचना उतना ही मुश्किल है. दुर्गम पहाड़ियों और भयंकर घाटियों के बीच बहने वाली लोहित नदी के किनारे-किनारे ऊपर की तरफ जाना मुश्किल भरा कार्य है. एक ही सड़क है. अक्सर भूस्खलन होते हैं और रास्ते बंद हो जाते हैं. कई बार तो पूरी सड़क बह जाती है.